बिहार की चित्रकला-Bihar Art and Culture For Bpsc Exam-Patna Chirakala, Madhubani Chitrakala and Other

बिहार की चित्रकला-Bihar Art and Culture For Bpsc Exam-Patna Chirakala, Madhubani Chitrakala and Other

67th Bpsc Art and Culture-Bihar Paintings for Bpsc Exam 2022-Bpsc Art Objective Questions-Bihar PSC District Art and Culture Officer Syllabus 2022



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BIHAR ART & CULTURE FOR BPSC PRELIMS AND MAINS EXAM

दोस्तों बिहार लोक सेवा आयोग की प्रारम्भिक परीक्षा में Bihar Paintings से 2-3 प्रश्न आते है। साथ ही मुख्य परीक्षा में भी इससे प्रश्न आते हैं। यहाँ हमने सरल भाषा में इस विषय को Cover किया है जिसे आप पढ़ सकते है।
इसके अंतर्गत हमने बिहार से सम्बंधित सल्तनत कालीन चित्रकला, मुग़ल कालीन चित्रकला एवं आधुनिक चित्रकला जिसमे पटना चित्र शैली, थंका चित्रशैली, मधुबनी चित्रककला, मंजूषा चित्र शैली आदि को बताया है। 
 

चित्रांकन की विकास यात्रा 
बिहार के आदि मानव चित्रांकन रुचि को बनाए रखते हुए विकास भी करता गया। चित्रांकन का विकास बौद्धकाल से शुरू होती है। मगध सम्राट बिम्बिसार के समय गौतमबुद्ध के धर्मोपदेश से एक जबरदस्त धार्मिक क्रांति हुई थी। बिम्बिसार भी प्रभावित हुआ था और वह अपने 12 नयुत अर्थात 1 लाख 20 हजार प्रजाजनों के साथ राजगृह के लट्ठीवन उद्यान जाकर बुद्ध के दर्शन करते हुए बौद्ध बना था (विनय पिटक)। दिव्यावदान के अनुसार बिम्बिसार ने गौतम बुद्ध का चित्र बनवाया था (528 ई.पू.)।


बौद्धकाल में बिहार के नालंदा, विक्रमशिला तथा उदंतपुरी विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ कलात्मक गतिविधियों के भी केंद्र था। विश्वविद्यालय में चित्रकला को भी फलने-फूलने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ था। जिसके फलस्वरूप बौद्धकालीन बिहार में भित्ति चित्रकला तथा पाण्डुलिपियों में उत्कीर्ण चित्रकारियों का विकास हुआ।


पालकालीन चित्रांकन अपने अंतिम दौर से गुजर रही थी। इस काल में चित्रांकन को कला से जोड़ा गया। कला के साथ जोड़ते हुए चित्रांकन को 'चित्रकला' के रूप में विकास किया जाने लगा। जिसके फलस्वरूप भित्ति चित्रांकन तथा पाण्डुलिपियों में उत्कीर्ण चित्रकारियों का काफी विकास हुआ। पालकालीन चित्रकला के अंतर्गत अंजता की शैली में चित्रों का निर्माण हुआ। पालकाल में ताल पत्रों तथा विभिन्न वस्तुओं पर भी चित्रकारियाँ की जाती थी। 


Details Of BPSC Arts & Culture Officer Previous Papers

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सल्तनत काल में चित्रकारी

बख्तियार खिलजी के आक्रमण के पश्चात् बिहार पर तुर्क मुसलमानों का शासन आरंभ हुआ। उदंतपुर (बिहारशरीफ) में उन्होंने राजधानी स्थापित की। तुर्क मुसलमानों ने चित्रकला की अपेक्षा स्थापत्य कला के क्षेत्र में अधिक ध्यान दिया। तुर्क काल की सबसे महत्त्वपूर्ण इमारत बिहारशरीफ स्थित मल्लिक बया का मकबरा है। इस मकबरा का निर्माण 1353 में हुआ था। इस मकबरे पर तुगलक शैली (फारसी) का स्पष्ट प्रभाव है। इसकी प्रेरणा गयासुद्दीन तुगलक के मकबरे से ली गई है.

शासकों ने भारतीय संस्कृति को ईरान (फारसी) की संस्कृति के स्तर पर लाने की चेष्टा किया था। स्थापत्य कला के अंतर्गत लोदी खुलादर नामक एक शैली प्रचलित अवश्य थी परंतु इस्लाम में चित्रकला का निषेद्य होने के कारण सल्तनत काल में चित्रकारों को प्रोत्साहित नहीं किया जा सका।


मुगलकालीन चित्रकला

अकबर कालीन-
अकबर के समय भी चित्रकला को इस्लाम विरोधी तत्व माना जाता था। इस संबंध में अबुल फजल अल्ला लिखता है- 'अधिक संख्या में लोग चित्रकला से घृणा करते हैं।' चित्रकला के प्रति नकारात्मक के वातावरण रहने के बावजूद अकबर ने चित्रकला और अपने दस्तावेजों के सुलेखन के लिए एक पूरे विभाग की स्थापना की। यह विभाग आगे चलकर 'मुगल स्कूल ऑफ पेंटिंग' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

अकबर ने बिहार के सूबेदार बिहार के चित्रकारों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन प्रदान करने को कहा। बिहार के सूबेदारों- मिर्जा अजीज कोका, सईद खाँ छाघता, मिर्जा युसुफ मशदी, कुंवर मान सिंह आदि के समय में चित्रकला के लिए अनुकूल वातावरण निर्मित हुआ। इस तरह मुगल चित्रकला में भारतीय प्रभाव आना प्रारंभ हुआ। इस अवधि में कलाकार आम जनता के जीवन की अपेक्षा दरबारी जीवन का चित्रण करने पर अधिक केद्रित थे।

अकबरकालीन चित्रकार थे– मीर सैयद अली, ख्वाजा अब्दुल समद, फर्रुख कलम, मिस्कीन, दसवन्त, बसावन, केशवलाल, मुकुन्द, जगन्नाथ, केशु माधव, महेश, खेमकरन, तारा, सानवाला, हरिवंश, राम इत्यादि। .


जहाँगीर कालीन-

वह स्वाभाव से प्रकृ. तिवादी था और वनस्पतियों और जीवों को प्राथमि. कता देता था। इसलिए उसने छविचित्र में प्रकृतिवाद लाने पर बल दिया। जहाँगीरकालीन बिहार के सूबेदारों- बाजबहादुर इस्लाम खाँ, अब्दुरहमान (अफजल खाँ), जफर खाँ, बेग, नादिर, मुराद, बिशनदास, माधव, मनोहर, तुलसी, केशव बंधु आदि।

जहाँगीर कालीन चित्रकार थे- अबुल हसन, फारूख


शाहजहाँ कालीन-

उसने चित्रकला के क्षेत्र में अपने पिता की परंपरा को जारी रखा। परंतु मुगल चित्रकला की शैली में शाहजहाँ के दौरान तेजी से परिवर्तन हो गई। वह प्रकृतिवादी चित्रण के स्थान पर कृत्रिम तत्वों की रचना अधिक पसन्द करता था। उसने चित्रों में सोने और चांदी का उपयोग बढ़ाने का आदेश दिया। वह चमकीले रंग अधिक पसंद करता था।


शाहजहाँ कालीन बिहार के सूबेदारों- खान-ए-आलम, सैफ खाँ, अब्दुल खाँ बहादुर फिरोज जंग, शाइस्ता खाँ, आजम खाँ, जुल्फिकार खाँ इत्यादि के कार्यकाल में चित्रकारी को प्रोत्साहित किया जाता रहा था।
शाहजहाँ कालीन प्रमुख चित्रकार थे- मोहम्मद फकीररूल्लाह, मीर हासिक इत्यादि । !

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Bihar District Art and Culture Officer Previous Papers, BPSC

औरंगजेब कालीन-

औरंगजेब धर्मान्ध मुगल शासक था। चित्रकला में उसकी कोई रुचि नहीं थी। चित्रकला को वह इस्लाम के विरुद्ध समझता था। इस कारण उसने चित्रकारों को राजकीय संरक्षण एवं प्रोत्साहन देना बन्द कर दिया। दरबारी चित्रकार बाजारों के शरण में चले गए। वे अब जनता की रुचि के अनुरूप चित्र बनाने और उन्हें बाजारों में बेचने लगे, वह भी छुप-छुपे। इस प्रकार चित्रकला दरबार से निकलकर सामान्य जनता तक पहुंच गई। इस प्रकार औरंगजेब के शासनकाल में मुगल चित्रकला पत्नोन्मुख हो गई। औरंगजेब का पोता शाहजादा अजीमुशाह (अजीम) ने ) अजीमाबाद नगर बसाया। उसने औरंगजेब के विपरीत अजीमाबाद में कलाकारों को प्रश्रय दिया। जिससे 1 मुगल चित्रण शैली की एक शाखा ‘पटना शैली' की नीवं पड़ी। इस समय के चित्रों के कुछ नमूने पटना के संग्रहालय में तथा पटना के राजकीय शिल्पकला विद्यालय में सुरक्षित अवस्था में रखे गए हैं।



आधुनिक चित्रकला-(Bpsc Exam 2022)

पटना कलम शैली Patna Kalam Shaili

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर आपको यहाँ मिल जाएंगे 
  • पटना कलम के अंतिम चित्रकार कौन थे
  • पाठन शैली का इतिहास
  • कंपनी शैली के चित्रकारों के नाम
  • पटना कलम चित्रकला शैली की प्रमुख विशेषताओं का परीक्षण करें
  • बंगाल शैली के प्रमुख चित्रकार
  • पारंपरिक चित्र शैली के प्रकार और राज्य का नाम
  • कंपनी स्कूल को पटना स्कूल के नाम से भी क्यों जाना जाता है

पटना चित्र शैली-

पटना कलम भारतीय चित्र शैली की एक क्षेत्रीय चित्र शैली है। इस चित्र शैली ने अपनी विशिष्टता की वजह से वैश्विक पहचान बनाई है। मुगल बादशाह औरंगजेब ने कला-साहित्य संगीत की घोर उपेक्षा की। कलाकारों को उसने काफिर घोषित कर दिया था। राजाश्रय के अभाव में चित्रकार जीविका की तलाश में जहाँ प्रश्रय मिला वहाँ बसते चले गए। भिन्न-भिन्न स्थानों में बस जाने के कारण उनकी कलाकृति विभिन्न नामों से जानी गई। इनमें दिल्ली कलम, लखनऊ कलम, पटना कलम आदि लोकप्रिय एवं विख्यात हुए।

मुगल दरबार से राज्याश्रय के अभाव में मुर्शीदाबाद में के चित्रकार पहले तो मुर्शीदाबाद के बालुचक नामक स्थान पर बसे परंतु प्रशासनिक नगर के रूप में मुर्शीदाबाद के महत्व के घटने और पटना के महत्व बढ़ जाने के कारण वे बालुचक से प्रस्थान कर पटना में बसना शुरू कर दिया। चित्रकार पटना के लोदीकटरा, मालापुरा, दीवान मोहल्ला, मच्छरहट्टा तथा नित्यानंद का कुंआ क्षेत्र में तथा कुछ चित्रकारों ने आरा तथा दानापुर में बसकर चित्रकला के क्षेत्रीय रूप को विकसित किया। यह चित्रशैली ही 'पटना कलम' के नाम से जानी गई। मान्यता है कि पटना कलम के जन्मदाता अकबर एवं जहाँगीर काल के प्रमुख चित्रकार मनोहर के वंशज थे, जो मुर्शीदाबाद में बस गए थे।

  • पटना कलम के चित्र लघु चित्रों की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें ज्यादातर कागजों और कहीं-कहीं हाथी दांत पर बनाया जाता है। इस शैली के अधिकांश चित्रकारों के पुरुष होने के कारण इसे 'पुरूष शैली भी कहा जाता है। पटना चित्र शैली की चित्रकला अपने गतिपूर्ण लयबद्ध रे खाएँ, रूढ़ीवादी आकारों का आलंकारिक सौन्दर्य, चमकती रंग संगति, आदि सौन्दर्य तत्वों के दर्शन के कारण लोकप्रिय हुआ। इस शैली के अधिकांश चित्रकारों ने व्यक्ति विशेष, पर्व-त्योहारों एवं उत्सव तथा जीव-जंतुओं के चित्रण पर बल दिया। 
BPSC Aspirants - पटना कलम चित्रशैली (Patna Kalam)

इस कलम के प्रथम चित्रकार के रूप में सेवक राम माने जाते हैं। उनके समकालीन चित्रकारों में हुलास लाल, झुमक लाल, फकीरचंद्र, माधो लाल, महादेव लाल, टुन्नीलाल शिवलाल, जयराम दास, यमुना प्रसाद आदि थे। इस कला को 19वीं शताब्दी में शिवलाल, शिवदयाल लाल ने आगे बढ़ाया। इस शैली के अंतिम शीर्ष चित्रकार ईश्वरी प्रसाद वर्मा थे। पटना चित्र शैली में ऊँची नाक, भरी भवें, पतले चेहरे, गहरी आँखें एवं पुरूषों की धान मूंछे दिखाई गई हैं। तस्वीरों को बनाने में पेंसिल से आकृति बनाकर रंग भरने के बदले ब्रश से ही तस्वीर बनाने एवं रंगने का कार्य किया गया है।
 
पटना कलम के चित्रकार मुख्य रूप से तीन प्रकार के चित्र बनाते थे- व्यक्ति विशेष के चित्र जैसे धोबी, कुली, लोहार, कसाई, दरबान आदि । दस्तकारों में बढ़ई, सोनार, जुलाहा, कुम्हार आदि । खेल-तमाशे-मदारी, नट, जादूगर आदि । आवागमन के साधनों-पालकी, डोली, तांगा आदि। महिलाओं का सूत काटना, खाना बनाना, शृंगार करना भी पटना कलम का विषय बना।
पटना कलम के चित्रों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि मुगलकालीन शाही चित्रकारों की विरासत




थंका चित्रशैली

थंका चित्रशैली बिहार की न होकर यह तिब्बती लामावादी बौद्धधर्मावलंबियों की है। चूंकि बौद्ध चित्रकला का उत्थान नालंदा विश्वविद्यालय में हुई थी। चित्रकला को यहाँ कॉफी प्रोत्साहन भी मिला था। तिब्बती छात्र चित्रकला में दीक्षित भी हुए थे। वे इस ज्ञान को तिब्बत ले गए जिसे अपनी संस्कृति के अनुरूप इसे ढाला और विकसित किया। इसी कारण कुछ कला समीक्षक इस चित्रशैली को बौद्धकालीन बिहार की चित्रशैली मानते हैं। थंका चित्रशैली में बौद्धशैली स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

  • बौद्धकालीन बिहार में ताड़-पत्र पर पाण्डुलिपियों के चित्रण के अतिरिक्त दीवारों पर भी चित्र बनाये जाते थे जिसमें गौतम बुद्ध के धर्मोपदेश, उनका जीवन चक्र और सामान्य जीवन के दृश्य होते थे। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में बौद्ध कालीन बिहार की पाण्डुलिपि- 'अष्टसहस्त्रिका', 'प्रज्ञापारमिता' और 'पंचरक्ष' सुरक्षित हैं। इनमें बुद्ध के जीवन दृश्यों के अतिरिक्त महायान परम्परा में पूजे जाने वाने विभिन्न देवी-देवताओ का चित्रण हुआ है। इन चित्रों पर तांत्रिक कला (थंका) का प्रभाव भी स्पष्ट है। लाल, सफेद, काले तथा नीली रंगों का प्रयोग करने के बाद हरे, भूरे, गुलाबी तथा बैगनी रंगों से चित्र बनाए गये हैं।


नालंदा विश्विद्यालय में तैयार की गयी पाण्डुलिपियों पर अंकित चित्रों में उत्कृष्ट स्नायविक रेखांकन, इन्द्रायासक्त लालित्य तथा रैखीय अलंकरण हैं जो चित्रों की शैलीगत विशेषता को दर्शाते हैं। इन चित्रों में आँखों को दोहरी वक्राकार तथा नाक नुकीली बनाई गई है जिसमें स्नायुविक तनाव दृष्टिगोचर होता है। यह शैली थंका चित्रकला में स्पष्टरूप से देखी जा सकती है।

1197 के अंत में तुर्क मुसलमान बख्तियार खिलजी ने जब बिहार पर आक्रमण कर नाल. दा, उदंतपुरी, विक्रमशीला विश्वविद्यालय के बौद्धभिक्षुओं, आचार्यों, छात्रों की हत्या करने लगा तब बहुत से बौद्ध आचार्य अपनी पाण्डुलिपियों के साथ तिब्बत चले गए तथा वहाँ पर अपनी चित्रकला को जीवित रखा। उन्होंने वहाँ पर अनके चित्रकारियाँ की। वहाँ पर बनी चित्रकारियों में नालंदा की चित्रकला का प्रभाव देखा जा सकता है, परन्तु वहाँ की अपनी कुछ सांस्कृतिक विशेषताएँ भी हैं, जैसे बुद्ध, माँ तारा आदि के मंगोलियम चेहरा। तिब्बती बौद्ध धर्मावलंबी महायान शाखा के मानने वाले हैं। अतः उनके थंका चित्र में बुद्ध के धर्मोपदेश के साथ-साथ सिद्धि दायिनी शक्ति माँ तारा, तांत्रिक मुद्राएँ, धर्मचक्र मुद्रा में बैठे बुद्ध, चक्रयान, करूणा सागर का उग्र रूप जिसमें वह रक्त खप्पर लिए हुए हैं, नृत्य मुद्रा में बुद्ध, माँ उग्र तारा, बुद्धत्व के प्रदाता श्री गणेश, लामा, तांत्रिक मुद्राओं के विभिन्न रूप आदि । जातक कथाओं का मुख्य वरण्य विषय धार्मिक चित्रशैली से जुड़ी है।


थंका चित्र शैली की 109 चित्र पटना संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इन संरक्षित चित्रों में जिन 5 विषयों का वर्णन किया गया है, वे हैं-दिव्याला, अभिधर्मोपदेश, धर्मपाल, अंतःप्रकृति तथा मण्डल। इन चित्रों में रंग-संयोजन को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। प्रमुख थंका चित्रकार हैं-उपेन्द्र महारथी, दिनेश बख्शी, कुमुर्द शर्मा, रजत घोष, बटुकेश्वर नाथ श्रीवास्तव, जमर जलील आदि। -


मधुबनी चित्रकला

मधुबनी चित्रकला का विक।स मिथिलांचल के क्षेत्र में हुआ है, जो मिथिला लोक सांस्कृति की एक अलौकिक रचना संसार है। यह कला मिथिला के मधुबनी, दरभंगा, सहरसा, मधेपुरा, सुपौल और पूर्णिया जिले के समस्त लोकजीवन में रची-बसी है।

चित्रकला शैली में मानव अपनी सोच को कैनवास पर उतारता है, जो स्थान विशेष के कारण उसमें शैलीगत विशेषता आ जाती है मधुबनी चित्रकला में शैलीगत विशेषता यह है कि इन चित्रों में चित्रित वस्तुओं का मात्र सांकेतिक रूप में दर्शाया जाता है। चित्रकला में अभिव्यक्ति सरल और आसान है, इसलिए मिथिला संस्कृति के लोगों ने अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए इस कला को अपनाया, जो समय के साथ परिष्कृत होती चली गयी।

मधुबनी चित्रकला दो प्रकार के होते हैं- 1. भित्ति चित्र 2. अरिपन।

भित्ति चित्र के तीन रूप होते हैं-1.गोसनी के घर की सजावट 2. कोहबर घर की सजावट 3. कोहबर घर के कोणिया की सजावट । 

  • गोसनी के घर की सजावट के अंतर्गत धार्मिक महत्त्व के चित्र होते हैं। देवी-देवताओं का चित्रण अधिक होता है। इन चित्रों के दार्शनिक तथ्य से लोक जीवन सतत् उद्वेलित होता रहता है, जो लौकिक - एवं पारलौकिक जीवन परंपरा का कोहबर घर के भीतर और बाहर बने चित्र यौनशक्ति को जागृत कराने वाले होते हैं। कोहबर के बाहर रति एवं कामदेव के चित्र एवं अंदर में पुरूष-नारी के जनन अंगों की आकृति तथा चारों कोणों पर यक्षिणी के चित्र बनाये जाते हैं। चित्रकारी प्रतीक के रूप होती है। केला-मासंलता, मछली-कामोत्तेजक, सिंह-शक्ति, सुग्गा-कामवाहक, बांस-वंशवृद्धि, कमल का पत्ता-स्त्री प्रजननींद्रीय, हंस-मयूर शांति के प्रतीक के रूप और सूर्य-चन्द्र जीवन के प्रतीक के रूप में चित्रित किए जाते हैं।


कोहबर चित्र प्रधानतः दीवारों पर ही चित्रित किए जाते हैं। चित्र उंगलियों से या बांस की कूची से चित्रित किए जाते हैं। इन चित्रों में प्रयोग किए जाने वाले रंग अधिकांश वनस्पतियों से एकत्र किए जाते हैं, जैसे-सेम की पत्ती से हरा रंग, हरसिंगार के फूलों के डंठल से नारंगी रंग, गेंदा फूल से पीला रंग, नील से नीला रंग, प्लाश से केसरिया रंग, जौ को जलाकर काला रंग, गेरू से लाल रंग, लाख के कीड़े से महावर रंग, घोंघे से बैगनी रंग प्राप्त किया जाता है।

अलग-अलग रंगों का अपना सांकेतिक महत्त्व है, जैसेपीला रंग- धरती, उजला रंग- पानी, लाल रंगआग, काला रंग- वायु एवं नीला रंग- आकाश हेतु - प्रयुक्त होता है।

मधुबनी कला का एक अन्य रूप अरिपन (भूमि चित्रण) है। यह आंगन में, तुलसी चौरा के पास एवं चौखट के सामने जमीन पर निर्मित किए जाने वाले चित्र हैं। इन्हें बनाने में कुटे हुए चावल को पानी में एवं रंग में मिश्रित किया जाता है। इन चित्रों को महिलाएँ उंगलीयों से ही बनाती हैं।

अरिपन चित्रों को पाँच श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- 
1. मनुष्य एवं पशु-पक्षियों को दर्शाने वाले चित्र 
2. वृक्षों एवं फल-फूलों के चित्र 
3. तंत्रवादी प्रतीकों पर आधारित चित्र 
4. देवी-देवताओं के चित्र
5. धार्मिक प्रतीकों- स्वस्तिक, कमल, कलश, द्वीप इत्यादि के चित्र।

अरिपन से मिथिला की संस्कृति परिलक्षित होती है। सामान्यतः सभी घरों में पर्व-त्योहार, विवाह एवं उपनयन संस्ज्ञर के अवसर पर अरिपन बनाए जाते हैं। आज से छ: सौ वर्ष पूर्व मैथिल कवि विद्यपति ने अरपिन के संबंध में लिखा है


BPSC District Art And Culture Officer Previous Papers - Practice

मधुबनी चित्रशैली के प्रमुख चित्रकार हैं-सियादेवी, कौशल्या देवी, भगवती देवी, शशिकला देवी, महासुंदरी देवी (पद्मश्री 2010), यमुना देवी, दुर्गा, बौआ देवी, गंगा देवी, शांति देवी, गोदावरी दत्त, भूला देवी, भूमा देवी, हीरा देवी, मुद्रिकादेवी, अनमना देवी, नीलू यादव, भारती दयाल, जानकी देवी, त्रिपुरा देवी, श्याम देवी, विमला दत्त, चन्द्रकांता देवी, कर्पूरी देवी, उर्मिला झा, सावित्री देवी, पुना देवी, अरूण यादव शिव पासवान, त्रिवेणी देवी, सीता देवी, मैना देवी आदि उल्लेखनीय हैं।


मधुबनी चित्रकला-जयन्ती जनता एक्सप्रेस रेलगाड़ी के डिब्बों में, संसद भवन के द्वार पर, पटना-दरभंगा-मधुबनी रेलवे स्टेशनों के दीवारों पर अंकित हैं।

मधुबनी चित्रकला के प्रमुख केंद्र हैं-मधुबनी, सिमरी, लहेरियासराय, दरभंगा, भवानीपुर, रांटी इत्यादि। ये सभी केंद्र मिथिलांचल के मध्य में स्थित हैं।


बिहार की इस चित्रशैली की 1942 में लंदन की आर्ट गैलरी में प्रदर्शनी लगाई गयी थी। किन्तु उस समय वह ख्याति नहीं प्राप्त कर सकी। इस चित्रकला को पहली बार ख्याति 1967 में मिली जब नई दिल्ली में मधुबनी चित्रकला की प्रदर्शनी आयोजित की गई, जिससे यह देश-विदेश में चर्चित हो गई। इसके बाद विदेशों में मधुबनी चित्रकला की प्रदर्शनियाँ आयोजित की जाने लगीं।

जापान के हासेगोवा ने तोकामाची सीटी में मधुबनी चित्रकला का एक संग्रहालय बनाया है, जहाँ मिथिला के दुलर्भ चित्रों को संकलित किया गया है। जर्मनी की एरिक स्मिथ ने इस चित्रकला पर शोधकार्य किया है। अमेरिका के रेमड़स ने इसे अर्थतंत्र के साथ जोड़ने का कार्य किया है।


मधुबनी चित्रकला को विश्वख्याति दिलवाने का श्रेय भास्कर कुलकर्णी, ललित नारायण मिश्र, उपेन्द्र महारथी तथा उपेन्द्र ठाकुर को दिया जाता है।

मिथिला की इस चित्रकला में मिथिला संस्कृति का प्रतिबिम्ब झलका है। हजारों वर्ष से चली आ रही इस परंपरा को मिथिलावासी धरोहर के रूप में आज भी जीवत रखे हुए हैं।




मंजूषा चित्र शैली

मंजूषा का अर्थ है- वह तश्तरी आदि जिसमें रखकर अभिनन्दन पत्र या अन्य सम्मान योग्य वस्तु भेंट किया जाता है।

मंजूषा चित्र शैली का विकास भागलपुर के क्षेत्र में हुआ। भागलपुर में बिहुला विषहरी पूजा जो सर्प देवता को समर्पित है, में बांस, जूट व पेपर की मंजूषा बनाई जाती है।

भागलपुर क्षेत्र में लोकगाथाओं में अधिक प्रचलित बिहुला-विषहरी की कथाएँ ही इस चित्रशैली में चित्रित होती हैं। बिहुला विषहरी की कथाओं का चित्रण और सर्प देवता का चित्रण किया जाता है। विषहरी का अर्थ है- 'जहर ले जाने वाला व्यक्ति' ।

मूलतः भागलपुर (अंग) क्षेत्र में सुपरिचित इस चित्रशैली में सनई की डंठल से बनी मंदिर जैसी दिखने वाली एक मंजूषा पर बिहुला-विषहरी की गाथाओं से संबंधित चित्र कूचियों द्वारा बनाए जाते हैं। इस शैली में पात्रों का मात्र बायाँ भाग ही चित्रित किया जाता है।

मालियों द्वारा विकिसत इस चित्रकला शैली की एक प्रमुख कलाकार चक्रधर देवी थीं जिनका निधन 2009 में हो गया।

चित्रकला का उदय समाज के रीति-रिवाजों पर अवस्थित है, क्योंकि वह परंपरपागत विचारों, आस्थाओं और संकेतों पर आधारित होते हैं। चित्रकला अपने भाव में स्वबद्ध होती है साथ ही यह जनसाधारण के व्यवहार की भी कला है। मंजूषा चित्रकला में इसे स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मंजूषा कला या अंगिका कला अंग प्रदेश (बिहार), झारखंड, प. बंगाल व नेपाल की तराई क्षेत्र में प्रचलित हैं।

BPSC District Art Culture Officer Syllabus and Exam Pattern


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