भारत के मौलिक अधिकार-Fundamental Rights in Hindi-भाग 3-अनुच्छेद 12 से 35-Indian Constitution-Part 3-Article 12 to 35

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Fundamental Duties in Hindi-Fundamental Rights Article 12 to 35 in Hindi
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भारत के मौलिक अधिकार: Fundamental Rights in Hindi-Fundamental Duties in Hindi

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मूल अधिकारों का वर्गीकरण,Classification of Fundamental Rights

भारतीय संविधान की उद्देशिका में व्यक्ति की गरिमा को सुनिश्चित करने का आश्वासन दिया गया है। इसमें विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, और उपासना की स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा और अवसर की क्षमता पर बल दिया गया है। इन्हें सुनिश्चित करने के लिए ही भारतीय संविधान के भाग 3 में मूल अधिकारों की व्यवस्था की गई है। भारतीय संविधान में वर्णित मूल अधिकारों की प्रेरणा संयुक्त राज्य अमेरिका से ली गई है। भारतीय संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 12 से 35 में वर्णित मूल अधिकारों को भारत का अधिकार पत्र (मैग्नाकार्टा) कहा गया है।


भारतीय सविंधान-भाग 3-मूल अधिकार (अनुच्छेद 12-35)

मूल अधिकार क्यों जरूरी है-Why Fundamental Rights Are Necessary

मूल अधिकार वे आधारभूत अधिकार है जो नागरिकों के नैतिक, बौद्धिक, व आध्यात्मिक विकास के लिए अपरिहार्य हैं।  इनके बगैर व्यक्ति का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है। यह अधिकार मानव के व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास, स्वतंत्रता, और समानता के साथ अच्छी तरह से जीवन यापन करने तथा शोषण मुक्त समाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आवश्यक है। तथा इसके अभाव में एक सभ्य और प्रगतिशील समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है।

यह अधिकार मौलिक और आधारभूत है तथा सभी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के इसका उपभोग कर सकते हैं। संविधान भी स्वयं यह सुनिश्चित करता है कि सरकार भी इन अधिकारों का इसका उल्लंघन न कर सके।
यदि किसी व्यक्ति को इन अधिकारों से वंचित किया जाता है तो वह सीधे उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय जा सकता है। इन अधिकारों को राज्य द्वारा पारित विधियों से ऊपर रखा गया है। तथा संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया को अपनाये बिना इनमें किसी प्रकार का परिवर्तन या संशोधन नहीं किया जा सकता है। 
एक और बात है की मौलिक अधिकार वाद योग्य है जबकि नीति निदेशक सिद्धांत वाद योग्य नहीं है।



मूल अधिकार किसे प्राप्त है-Who has the Fundamental Rights

भारत का संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के मूल अधिकारों की गारंटी देता है। इस प्रकार मूल अधिकार भारत के नागरिक को प्राप्त है। पर इनमें से कुछ अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त है चाहे वह भारत का नागरिक हो या ना हो।

मूल अधिकार के अनुच्छेदों में कहीं पर नागरिक  शब्द का प्रयोग किया गया है तो कहीं पर व्यक्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। जिन अनुच्छेदों में नागरिक शब्द का प्रयोग किया गया है वे अधिकार केवल भारत के नागरिक को प्राप्त है तथा जहां पर व्यक्ति शब्द का प्रयोग किया गया है अधिकार सभी को प्राप्त है ,चाहे वह भारत का नागरिक हो या विदेशी।

परन्तु इसका एक अपवाद भी है-अनुच्छेद 22 के अंतर्गत गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होने के बावजूद भी या अधिकार शत्रु देश के किसी व्यक्ति को प्राप्त नहीं है। 


मूल अधिकारों का महत्व-Importance of Fundamental Rights

मूल अधिकारों का उद्देश्य एक विधि शासित सरकार की स्थापना करना है। मूल अधिकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास तथा एक सभ्य एवं प्रगतिशील समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है।मूल अधिकार राज्य के निरंकुश व्यवहार से नागरिकों तथा व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करते हैं, ताकि राज्य मनमाने ढंग से उनका अतिक्रमण न कर सके। उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में मूल अधिकारों का संरक्षक है।



मूल अधिकार और सामान्य कानूनी अधिकार में अंतर-Difference between Fundamental Rights and General Legal Rights 

मूल अधिकारों का वर्णन भारतीय संविधान के भाग 3 में किया गया है जबकि सामान्य कानूनी अधिकार संविधान के प्रबंधों में जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। भारतीय संसद तथा राज्य विधान पालिका संविधान के नियमों के अनुरूप विधि बनाकर सामान्य कानूनी अधिकारों का विनियमन कर सकती है, दूसरी तरफ मूल अधिकारों में परिवर्तन के लिए संविधान में संशोधन करना आवश्यक है।

सामान्य कानूनी अधिकार केवल कार्यपालिका के कृत्यों से सुरक्षा प्रदान करते हैं जबकि विधायिका उचित प्रक्रिया द्वारा सामान्य कानूनी अधिकारों का अतिक्रमण कर सकती है, लेकिन मूल अधिकार कार्यपालिका और विधायिका दोनों के कृतियों से सुरक्षा प्रदान करते हैं।

विधायिका संविधान संशोधन की प्रक्रिया के बिना मूल अधिकारों को प्रतिबंधित या असीमित नहीं कर सकती है। मूल अधिकारों का अतिक्रमण होने पर सीधे उच्चतम या उच्च न्यायालय में याचिका दायर की जा सकती हैं।


राज्य की परिभाषा-Definition Of a State
भाग 3 के अंतर्गत अनुच्छेद 12 में राज्य की परिभाषा दी गई है।


मूल अधिकारों से असंगत विधियों का शून्य होना-Laws void of Fundamental Rights

अनुच्छेद-13 भूतकाल और भविष्य की विधियों से मूल अधिकारों की रक्षा का उपबंध करता है। यह मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियों को शून्य घोषित करता है। यह पहले से लागू विधियों से मूल अधिकारों का संरक्षण प्रदान करता है अर्थात कोई कानून जो पहले बन चुका है और वह मूल अधिकारों का अतिक्रमण करता है तो उस कानून को नहीं माना जायेगा।

इसके अनुसार संविधान के प्रारंभ से पहले से भारत के राज्य क्षेत्र में प्रवृत्त सभी विधियां मूल अधिकारों के उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होंगी।
यदि राज्य कोई ऐसी विधि बनाता है जो मूल अधिकारों का अतिक्रमण करती है तो वह विधि उस मात्रा तक शून्य होगी जिस मात्रा तक मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है।

अनुच्छेद-13 कई सिद्धांतों को प्रभावी बनाता है- जैसे - 

  • भूतलक्षी प्रभाव का ना होना
  • आच्छादन का सिद्धांत
  • पृथक्करण का सिद्धांत
  • न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत

अनुच्छेद-13 पहले से प्रवृत्त तथा बाद में बनाई जाने वाली दोनों प्रकार की थी कि विधियों पर लागू होगा।

आच्छादन का सिद्धांत क्या है- Doctrine of Eclipse

भिखाजी बनाम  मध्यप्रदेश राज्य बाद में उत्तम न्यायालय ने यह बताया कि पहले से प्रवृत्त विधियां जो मूल अधिकारों से असंगत है वे संविधान के लागू होने पर समाप्त नहीं होती बल्कि मूल अधिकारों से आच्छादित हो जाती हैं तथा निष्प्रभावी हो जाती हैं, भविष्य में किसी संशोधन द्वारा मूल अधिकारों का अच्छादन हटने पर वह विधियां पुनः प्रभावी हो जाती हैं इसे ही आच्छादन का सिद्धांत कहा गया है।

पृथक्करण का सिद्धांत-Principle of Separation

अनुच्छेद-13 के अनुसार मूल अधिकारों से असंगत विधियां मूल अधिकार के उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होंगी। तात्पर्य है कि किसी विधि (कानून) का केवल वही भाग शून्य होगा जो मूल अधिकारों से असंगत है संपूर्ण विधि नहीं। 
परंतु यदि उस विधि का असंगत भाग पृथक करने से उस विधि का मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है तो संपूर्ण विधि ही शून्य मानी जाएगी। यही पृथक्करण का सिद्धांत है।

नोट -असंगत भाग वह भाग है जो मूल अधिकारों को रोकता है या मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है।


न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत-Doctrine of judicial review

अनुच्छेद-13 मूल अधिकारों का आधार स्तंभ है यह पहले तथा भविष्य में बनाई जाने वाली सभी विधियों से मूल अधिकारों का संरक्षण प्रदान करता है। इस प्रकार अनुच्छेद-13 पहले से लागू तथा भविष्य में बनाई जाने वाली सभी विधियों को न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन लाता है। 

कोई विधि मूल अधिकारों से असंगत है या नहीं इसका निर्धारण न्यायालय द्वारा किया जाता है। उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय मूल अधिकारों से असंगत विधियों को अवैध घोषित कर सकता है। 
उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्च न्यायालय अनुच्छेद 226 के अंतर्गत मूल अधिकारों का उल्लंघन करने वाली विधियों को अवैध घोषित करने की शक्ति प्राप्त है। 

इस प्रकार भारतीय संविधान का अनुच्छेद-13, अनुच्छेद-32 तथा अनुच्छेद 226 न्यायिक पुनर्विलोकन के सिद्धांत को प्रभावी बनाते हैं।

न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया है तथा इसे संविधान का आधारभूत ढांचा माना गया है।

संसद संविधान में संशोधन कर मूल अधिकारों में परिवर्तन कर सकती है परंतु यह मूल अधिकारों का न्यूनीकरण नहीं कर सकती और ना ही इसको हटा सकती है। 


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मूल अधिकारों का वर्गीकरण-Classification of Fundamental Rights

प्रारंभ में भारतीय संविधान में सात प्रकार के मूल अधिकार प्रदान थे। 
44 से संविधान संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा संपत्ति के अधिकार को अनुच्छेद 31 से हटा दिया गया। 
वर्तमान में भाग 3 के अंतर्गत 6 प्रकार के मौलिक अधिकारों का वर्णन है।

  1. समता का अधिकार- अनुच्छेद- 14 से 18
  2. स्वतंत्रता का अधिकार- अनुच्छेद- 19 से 22 
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार- अनुच्छेद- 23 से 24 
  4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार- अनुच्छेद- 25 से 28 
  5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार- अनुच्छेद- 29 से 30 
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार- अनुच्छेद- 32

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